Published On May 13, 2023
17 सालों में बना यह मंदिर- किशन दास मणिया ने इस मंदिर की नींव 1730 में रखी। ये मंदिर 17 सालों बाद बनकर तैयार हुआ। इसमें संतों और मुनियों के लिए संत शाला, निलय, आश्रम, नवीनतम पक्षालगृह, सिद्ध
परमेष्टि जिनालय, चौबीसी जिनालय के अलावा आकर्षक कुबेर द्वार है।
मंदिर के पीछे प्रचलित है एक कहानी- इस मंदिर के बनने के पीछे एक कहानी प्रचलित है। कहते हैं कोटा दरबार के दीवान किशन दास मणिया को एक दिन रात में स्वप्न दिखा। सपने में उन्हें प्रभु ने बताया कि सामोद से 55 किमी दूर शेरगढ़ की पहाड़ी पर भगवान आदिनाथ की मूर्ति है। उसे ले आओ और मंदिर बनवाओ। वे अगले दिन शेरगढ़ की पहाड़ी पर गए। वहां एक मूर्ति मिली लेकिन वो साढ़े 6 फीट लंबी और 2 टन भारी थी। वे उस मूर्ति को बैलगाड़ी पर लेकर नहीं जा सकते थे। तभी आकाशवाणी हुई ….आप बैलगाड़ी पर बैठो। मूर्ति अपने-आप लद जाएगी। पीछे मुड़कर मत देखना नहीं तो ये मूर्ति वहीं अचल हो जाएगी। किशन दास बैलगाड़ी लेकर चले। चांदखेड़ी के पास वे बैलों को पानी पिलाने के लिए उतरे। उनका मन नहीं माना और वे पीछे मुड़कर देखने लगे। वह मूर्ति जमीन पर दिखी और अचल हो गई। किशन मणिया को वहीं मंदिर बनवाना पड़ा। इसमें यह मूर्ति ग्राउंड फ्लोर के नीचे अंडरग्राउंड वाले हिस्से में है। इसके ऊपर वाले फ्लोर पर कई वेदियां और मूर्तियां हैं। ये मूर्तियां कहां से आईं हैं किसी को पता नहीं है। बड़ी मूर्ति के नीचे एक मंदिर है जिसमें रत्नों की मूर्तियां हैं। कहते हैं इस हिस्से की रक्षा खुद भगवान आदिनाथ करते हैं।
साल 2002 में हुआ खुलासा- मंदिर के भक्तों का कहना है कि जैन मुनि सुधा सागर जी को एक दिन स्वप्न दिखा। स्वप्न में उन्होंने देखा कि जैन मंदिर के नीचे जमीन के भीतर एक मंदिर है जिसमें रत्नों की मूर्तियां हैं। उन्होंने मंदिर में जाकर प्रबंधक और जैन धर्म के लोगों को ये बात बताई। फिर नीचे से रास्ता तलाशा गया। नीचे का हिस्सा खुला और मंदिर के भीतर चमचमाती रत्न जड़ित मूर्तियां मिलीं। उन मूर्तियों को कुछ दिन तक बाहर दर्शन के लिए रखा गया। फिर वापस उन्हें उसी स्थान पर रखकर सभी रास्ते बंद कर दिए गए। इसके बाद लोगों को इस निचले हिस्से के बारे में पता चला।
जयपुर। झालावाड़ से 35 किमी दूर चांदखेड़ी में एक प्राचीन जैन मंदिर है। इसमें एक हिस्सा जमीन के ऊपर और दूसरा अंडरग्राउंड है, लेकिन अंडरग्राउंड से भी नीचे इस मंदिर का एक असली हिस्सा है, जहां रत्नों की प्राण प्रतिष्ठित मूर्तियां हैं। न इस हिस्से में जाने का कोई रास्ता है और न ही उसमें जाने की कोई हिम्मत जुटा पाता है। कहते हैं, उन रत्नों की मूर्तियों की रक्षा भगवान करते हैं।
यहां वर्षों से जैन धर्म की कई पीढ़ियां पूजा-अर्चना कर रही थीं। उन्हें पता नहीं था कि जिस मंदिर में वे पूजा कर रहे हैं उसके नीचे ही जमीन के भीतर मंदिर का असली हिस्सा है, जिसके रास्ते बंद हैं। इसके ऊपर दो फ्लोर है। यहीं लोग पूजा अर्चना करते हैं।
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