Published On Oct 14, 2024
बब्बू वह पहला व्यक्ति नहीं था जिसके साथ ऐसा हुआ। क्रेशर में काम करने वाले हज़ारों मज़दूरों की जान की बस इतनी ही कीमत होती है। 8-10 साल क्रेशर में काम करने के बाद भी इन मज़दूरों को हादसा होने पर अस्पताल तो ले जाया जाता है, मगर इन लोगों की जान अस्पताल पहुंचते ही या रास्ते में ही निकल जाती है।
अधिकतर मामलों में इन मज़दूरों के परिवार वाले पुलिस में रिपोर्ट कराने से भी कतराते हैं, क्योंकि क्रेशर मालिकों की पहुंच बहुत ऊपर तक होती है। एक ही गांव में रहकर वह उनके साथ दुश्मनी नहीं रख सकते। यही वजह है, वह न चाहते हुए भी राज़ीनामा दे देते हैं और जान के बदले इन कारखानों के मालिक जो भी पैसा देते हैं, वह चुप-चाप मान लेते हैं।
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