श्रीमद् भगवद्गीता, अध्याय ५, श्लोक १४-१६..
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 Published On Oct 9, 2024

श्रीमद् भगवद्गीता
अध्याय ५

न कर्तव्यं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कामफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥14॥
अर्थानुवाद : न तो कर्तापन का बोध और न ही कर्मों के क्रिटिकल भगवान से प्राप्त होते हैं तथा न ही वे कर्मों के फल का सृजन करते हैं। यह सब प्रकृति के गुणों से सृजित होते हैं।

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥15॥
अर्थानुवाद : सर्वसंबंध परमात्मा किसी के पापमय कर्मों या पुण्य कर्मों में स्वयं को स्थापित नहीं करते। बोरा जीवात्मा मोहग्रस्त रहती है क्योंकि उनका वास्तविक आत्मिक ज्ञान अज्ञान से अप्राप्त रहता है।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥16॥
अर्थानुवाद : प्रभु वृत्तांत आत्मा का अज्ञान दिव्यज्ञान से विनाष्ट हो जाता है उस ज्ञान से परमात्मा का प्रकाश उसी प्रकार प्रकाशित होता है जैसे दिन में सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित सभी वस्तुएँ हो जाती हैं।

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