Published On Oct 4, 2024
किसी उत्सव या धार्मिक आयोजन में जब ढोल बजने की बारी आती है, तो भक्तों में एक अलग ही उमंग होती है। लेकिन जब ढोल नहीं बजता, तो गुस्सा भी उतना ही बढ़ जाता है। तमतमाए भक्तों की आंखों में आग जलने लगती है, और वे अपने आस्था के प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त करने लगते हैं।
“क्या यह उत्सव का समय नहीं है? ढोल क्यों नहीं बज रहा?” एक भक्त चिल्लाते हुए कहता है। अन्य भक्त भी सहमति में सिर हिलाते हैं। वातावरण में एक तरह की खामोशी सी छा जाती है, जिसे धोल की धुन से तोड़ने की कोशिश होती है।
ढोल की धुन न केवल धार्मिक भावनाओं को जागृत करती है, बल्कि यह भक्तों को एक साथ लाने का काम भी करती है। बिना ढोल के, उनका उत्साह अधूरा सा लगता है। तमतमाए भक्त अपनी नाखुशी को व्यक्त करते हुए कहते हैं, “क्या हम अपने उत्सव को ऐसे ही मनाएंगे? धोल न हो तो कैसे चलेगा!”
इस स्थिति में, आयोजक या अन्य लोग ढोल बजाने के लिए तुरंत कोशिश करते हैं। जैसे ही धोल की आवाज़ सुनाई देती है, भक्तों के चेहरे पर मुस्कान लौट आती है और गुस्सा तुरंत ख़त्म हो जाता है। ढोल की थाप पर सभी एक साथ नाचने लगते हैं, और उस गुस्से की बात बस एक मज़ेदार किस्से में बदल जाती है।
इस प्रकार, ढोल न बजने पर तमतमाए भक्तों की कहानी हमें यह सिखाती है कि एकता और उल्लास के लिए संगीत कितना महत्वपूर्ण है।
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